मल्टी-स्टोरी बिल्डिंगों में रहने वाले लोग अक्सर देखते होंगे कि ज्यादातर लोग फ्लैटों के बाहर शू-रैक रखते हैं। इसकी बड़ी वजह है जूते से बदबू आने की समस्या। इसी पर रिसर्च की है भारत के दो साइंटिस्ट विकास कुमार और सार्थक मित्तल ने। साल 2022 में इनकी स्टडी पब्लिश हुई थी। इसके लिए उन्हें नोबेल प्राइज Ig 2025 से सम्मानित किया गया है। इसकी घोषणा 18 सितंबर की रात को बोस्टन में की गई। विकास कुमार ने कहा, ‘जब हमें पता चला कि हमें ये अवॉर्ड मिल रहा है तो पहले लगा कोई प्रैंक कर रहा है, क्योंकि हम इसके बारे में जानते ही नहीं थे। बाद में अवॉर्ड देने वाली संस्था के चीफ एडिटर मार्क अब्राहम ने हमें कई इमेल और फोन कॉल किए। इसके बाद कहीं जाकर हमें समझ आया कि ऐसा कोई अवॉर्ड भी है।’ हॉस्टल रूम से आया आइडिया विकास कुमार शिव नाडर यूनिवर्सिटी में डिजाइन के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। वहीं, सार्थक मित्तल उनके स्टूडेंट और रिसर्चर हैं। दोनों को इंजीनियरिंग डिजाइन के लिए यह अवॉर्ड दिया जा रहा है। सार्थक मित्तल ने इस प्रोजेक्ट को एक स्टूडेंट असाइनमेंट के तौर पर शुरू किया था। उन्होंने देखा कि हॉस्टल में स्टूडेंट्स जूते कमरे के बाहर रखते थे। सार्थक ने कहा, ‘पहले मुझे लगा कि कमरे में जगह की कमी की वजह से स्टूडेंट्स शू-रैक बाहर रखते हैं। लेकिन बाद में मुझे पता चला कि इसकी असली वजह जूतों में से आने वाली बदबू है।’ बदबू खत्म करने वाली शू-रैक बना डाली विकास और सार्थक ने मेडिकल लिटरेचर के आधार पर पता किया कि जूतों से आने वाली बदबू जूतों के अंदर जमा होने वाले बैक्टीरिया की वजह से आती है। इसके लिए उन्होंने एक ऐसी शू-रैक बनाई जिसमें अल्ट्रा-वॉयलट लैंप लगाया गया। वाटर फिल्टरों में भी ऐसा ही लैंप लगाया जाता है जो फिल्टर को सैनिटाइज करता है। अल्ट्रा-वॉयलट लैंप शू-रैक में भी यही काम करता है। इसे लेकर प्रोफेसर विकास कुमार ने कहा, ‘डिजाइन के लिए आइडियाज बहुत छोटी-छोटी चीजों पर ध्यान देने से आते हैं। समस्याओं के समाधान के लिए अलग-अलग फील्ड्स की नॉलेज का एकसाथ इस्तेमाल करना होता है। हमने इंजीनियरिंग, डिजाइन और माइक्रो-बायोलॉजी का इस्तेमाल किया है।’ पिज्जा खाने वाली छिपकली, लहसुन खाने वाली मांओं पर रिसर्च भारत को मिला है 22वां अवॉर्ड इस साल मिलने वाला नोबेल Ig भारत को मिलने वाला 22वां अवॉर्ड है। इससे पहले साल 2022 में भारत, चीन, मलेशिया और अमेरिका को मैकेनिकल इंजीनियरिंग का अवॉर्ड मिला था। इस टीम ने मर चुकी मकड़ियों को पुनर्जीवित कर उन्हें जकड़ने के टूल के तौर पर इस्तेमाल किया था। साल 2020 में भारत और पाकिस्तान को संयुक्त रूप से शांति का पुरस्कार मिला था। दोनों देशों के डिप्लोमैट चुपके से आधी रात को एक-दूसरे के दरवाजे की घंटी बजाकर भाग जाते थे। 2003 में केरल के एक साइंटिस्ट को अवॉर्ड मिला था जिसने हाथी का सरफेस एरिया निकालने के लिए मैथमैटिकल इक्वेशन का इस्तेमाल किया था। 2001 में बेंगलुरु के न्यूरो साइंटिस्ट्स नाक में उंगली डालने की आदत पर स्टडी की थी। उन्हें भी Ig नोबेल दिया गया था। 1991 में शुरू हुआ था अवॉर्ड साल 1991 में एक साइंस ह्यूमर मैगजीन ‘अनाल्स ऑफ इमप्रोबेबल’ ने इस अवॉर्ड की शुरुआत की थी। थोड़े सीरियस नोबेल प्राइज के नटखट वर्जन के रूप में Ig नोबेल प्राइज की शुरुआत की गई थी। इसका मोटो है, ‘पहले लोगों को हंसाओं और फिर सोचने के लिए मजबूर कर दो….।’ यह अवॉर्ड उन स्टडीज को हाइलाइट करने का काम करते हैं जो सुनने में सनकी और अजीब लगती हैं लेकिन असल में वो साइकोलॉजी, बायोलॉजी जैसे कई सब्जेक्ट्स से जुड़े जरूरी मुद्दे हाइलाइट करती हैं। ऐसी ही और खबरें पढ़ें… जॉली LLB 3 की शुरुआत कवि ‘मुक्तिबोध’ की तस्वीर से:मृत्यु के बाद छपी पहली कविता, एम.एफ. हुसैन ने फिर कभी जूते नहीं पहने छप्पर टपकता रहा मेरा फिर भी मैंने बारिश की दुआ की मेरे दादा को परदादा से पिता को दादा से…..पूरी खबर पढ़ें….
